Monday, September 23, 2013

मोहन सिंह बहुत याद आएंगे

डीडीसी न्यूज़ नेटवर्क।। लखनऊ।। मोहन सिंह बहुत याद आएंगे। अमर सिंह को बड़ा भाई मानने वाले मोहन सिंह अब बड़े हो गए और अमर सिंह छोटे । मोहन खाटी समाजवादी थे तो अमर सिंह मौके के समाजवादी हैं। मोहन सिंह के जाने के बाद समाजवादी पार्टी में बौद्धिक प्रखरता का जो अभाव पैदा हुआ है उसकी भरपाई संभव नहीं। न ही उन जैसी बेबाक शख्सियत रोज ‌मिलती हैं।इलाहाबाद विश्वविद्यालय का कैम्पस हो या समाजवादी आंदोलन की जनसभाएं या फिर संसदीय राजनीति, यह रमता जोगी लंबे समय तक अपनी वाणी से लोगों को उद्वेलित करता रहा। अपना आभामंडल चमकाने के लिए समाजवादी राजनीति को जब भी विचारों के पैनेपन की जरूरत महसूस होगी, मोहन सिंह शिद्दत से याद आएंगे। कुछ साल पहले मोहन सिंह ने निजी बातचीत में बताया था कि उनकी ख्वाहिश इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बनने की थी। पर हॉस्टल में सोहबत ऐसी हुई कि राजनीति के होकर रह गए।
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में उनके जूनियर रहे लखनऊ के पूर्व डीएम व देवरिया से सपा के लोकसभा प्रत्याशी रमेन्द्र त्रिपाठी बताते हैं कि पढ़ने-लिखने में जहीन रहे मोहन सिंह हॉस्टल के दिनों से ही डॉ. राममनोहर लोहिया के विचारों से काफी प्रभावित थे। उनके संपर्क में आने के बाद तो जिंदगी के मायने ही बदल गए। सोच-विचार से वह खांटी समाजवादी हो गए। 1968-69 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ अध्यक्ष बनने के बाद उनकी सियासी पारी परवान चढ़ी। एक ओर डॉ. लोहिया, मधु लिमये और राजनारायण से बेहद प्रभावित और दूसरी तरफ गांधी परिवार से परहेज की राजनीति लगातार रंग लाती रही।
समाजवादी युवजन सभा के बड़े ओहदेदार बनने के थोड़े दिनों बाद ही वह ओमप्रकाश दीपक, प्रो. विजय कुमार, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और किशन पटनायक सरीखे समाजवादियों की जमात में शामिल हो गए। उनकी राजनीति काफी हाउस की गर्मागर्म बहसों व बौद्धिक लेखन तक सीमित नहीं रही। जनांदोलन में बढ़-चढ़ कर भाग लेते थे।1966 में इलाहाबाद के आनंद भवन को जनता के लिए खोलने के आंदोलन को लेकर जेल तक गए।
भाषा आंदोलन को भी उन्होंने काफी गरमाया। कांग्रेस विरोध के कारण आपातकाल में 20 महीने जेल काटी। अक्सर उन दिनों को याद करके वह रो पड़ते थे। पर इस लंबी जेल यात्रा ने उन्हें राजनीतिक तौर से और परिपक्व बना दिया। 1977 में पहली बार देवरिया जिले की बरहज सीट से विधायक बनने के बाद रामनरेश यादव की सरकार में उद्योग राज्य मंत्री बने। इस दौरान वह एक मसले पर अपनी ही सरकार के खिलाफ टिप्पणी करके सुर्खियों में आए थे। पिछले करीब 20 सालों से वे मुलायम सिंह के साथ थे और पार्टी का बौद्धिक पक्ष संभालते थे। सपा में रहकर उन्होंने न अपनी बेबाकी खोई और न आत्मसम्मान से समझौता किया। हालांकि, अपनी इसी आदत के कारण उन्हें अनपेक्षित स्थितियों का सामना भी करना पड़ा।
मोहन सिंह की राष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान काफी पहले बन चुकी थी। पर, सपा से अमर सिंह के निकल जाने के बाद उनका कद पार्टी में अचानक काफी बढ़ गया। राष्ट्रीय महासचिव के साथ प्रवक्ता भी बना दिए गए। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान डीपी यादव के मसले पर अपनी एक टिप्पणी के कारण प्रवक्ता पद से हटना पड़ा। राजा भैया को मंत्री बनाने के सवाल पर उनका एक बयान पार्टी के भीतर काफी हलचल पैदा कर गया था। बीमारी के बावजूद वह नई विधानसभा गठित होने पर नए विधायकों के प्रशिक्षण कार्यक्रम में शामिल होने आए थे। कार्यक्रम के बाद चाय के दौरान कह रहे थे, जब तक समाज में किसी स्तर की नाइंसाफी रहेगी, समाजवाद प्रासंगिक रहेगा। अपने नए स्वरूप में निखरता रहेगा। इस सरकार के बारे में उन्होंने कहा था, मेरी ख्वाहिश है कि नौजवान मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली बहुमत की सरकार कोई इतिहास जरूर रचे। पर, इस ख्वाब को हासिल करने के लिए जब किसी बौद्धिक मशविरे के लिए बेताब आंखें मोहन सिंह को तलाशेंगी तो अफसोस कि वो नहीं होंगे।

Wednesday, February 15, 2012

दुर्घटनाबाज़ नुक़्ता

Akhilesh Krishna Mohan

दुर्घटनाबाज़ नुक़्ता

नुक़्ते को लेकर कितनी मरहमबाजी हुई यह तो नहीं याद, लेकिन इतना ज़रूर याद है कि आज भी ऐसी दुर्घटनाएं हो ही जाती हैं। इस लिए फ़ुरशत में हैं तो यह ज़रूर पढ़ें...

नुक़्ता जिन अक्षरों में प्रयोग होता है, वे हैं क़, ख़, ग़, फ़, और ज़। यह सब उर्दू से आए हैं, केवल ज़ ऐसी ध्वनि है जो अंग्रेज़ी में भी पाई जाती है। ड और ढ के नीचे आने वाले बिन्दु (ड़, ढ़) अलग हैं, वे विदेशी शब्दों को इंगित नहीं करते और उन से उच्चारण में आने वाला अन्तर हिन्दी भाषियों को भली भान्ति मालूम है। आइए देखें क़, ख़, ग़, फ़, और ज़ के उदाहरण।
क़ उर्दू वर्णमाला में काफ़ (ک) और क़ाफ़ (ق) दो अलग वर्ण हैं, और दोनों के उच्चारण में अन्तर है। क़की ध्वनि को फोनेटिक्स की भाषा में voiceless uvular stop कहा जाता है। रोमन लिपि में उर्दू लिखते हुए इस के लिए q का प्रयोग होता है, जबकि क के लिए k का। पर यह केवल सुविधा के लिए किया गया है अंग्रेज़ी में q और k के बीच ऐसा कोई अन्तर नहीं है, और जहाँ तक मेरी जानकारी है, अंग्रेज़ी में क़ाफ वाली कोई ध्वनि नहीं है। पर फिर भी यदि आप किसी उर्दू शब्द के अंग्रेज़ी हिज्जों में q का प्रयोग देखते हैं तो आप उसे हिन्दी में लिखते हुए क़ का प्रयोग कर सकते हैं। उदाहरण नुक़्ता, क़रीब, क़ायदा, क़ैफ़ियत जैसे शब्दों में नुक़्ता प्रयोग होगा, जबकि किनारा, किताब, मुल्क, इनकार जैसे शब्दों में नहीं होगा
ख़ उर्दू वर्णमाला में ख की ध्वनि के लिए काफ़ के साथ दो-चश्मी-हे (ھ) को जोड़ा जाता है (ک + ھ = کھ) , यानी क के साथ ह को जोड़ कर ख बनता है शायद इसलिए कि अरबी फारसी में ख की ध्वनि नहीं होती, पर ख़ (voiceless uvular fricative) के लिए अलग वर्ण है जिसे ख़े कहते हैं। रोमन लिपि में मैं ने इस के लिए कोई विशेष वर्ण मानक रूप में प्रयोग होते नहीं देखा। उदाहरण ख़रीद, ख़ारिज, ख़ैबर, अख़बार (ख़बर, मुख़बिर), ख़ास, कुतुबख़ाना (पुस्तकालय) आदि में नुक़्ता प्रयोग होगा। बिना नुक़्ते के ख वाले शब्द अरबी-फारसी से नहीं हैं, इस कारण देसी शब्दों के लिए ख और अरबी-फारसी शब्दों के लिए ख़ का प्रयोग करें, जैसे खाना-ख़ज़ाना
ग़ यहाँ अन्तर है गाफ़ (گ) और ग़ैन (غ) का। यहाँ भी अंग्रेज़ी स्पेलिंग से कोई मदद नहीं मिल पाएगी, हाँ कई बार ग़ैन के लिए gh का प्रयोग होता है जैसे ghazal (ग़ज़ल)। पर इस का घ से भी कन्फ्यूजन हो सकता है, इस कारण उच्चारण का अन्तर, या फिर उर्दू के हिज्जे पता होने चाहिएँ। उदाहरण ग़रीब, ग़ायब, मग़रिब (पश्चिम), ग़ुस्सा, आदि में ग़ प्रयोग होगा, और अलग, अगर, गिरह, गिरेबान में ग
फ़ अरबी-फ़ारसी लिपि में फ की कमी प+ह=फ (پ +ھ = پھ) के द्वारा पूरी की जाती है, और फ़ के लिए फ़े (ف) का प्रयोग होता है। अंग्रेज़ी में उर्दू शब्द लिखते हुए फ के लिए ph और फ़ के लिए f का प्रयोग होता है। पर मुझे नहीं लगता अंग्रेज़ी भाषा में ph और f के बीच कोई अन्तर है। इस कारण मुझे नहीं लगता कि f वाले अंग्रेज़ी शब्दों (file, format, foot) के लिए नुक़्ते के प्रयोग की आवश्यकता है। हाँ, उर्दू के शब्दों के उदाहरण हैं फ़रमाइश, फ़रिश्ता, काफ़िर, आदि। फ वाले शब्द देसी हैं, इस कारण हिन्दी शब्दों (फिर, फल, फागुन) के लिए फ, और उर्दू शब्द यदि अरबी-फ़ारसी से आया है, तो उस के लिए फ़ का प्रयोग करें
ज़ मेरे विचार में हिन्दी भाषियों के लिए ज़ की ध्वनि पहचानना सब से आसान है, क्योंकि इस की ध्वनि ज से काफी भिन्न है। यहाँ पर नुक़्ते का ग़लत प्रयोग बहुत खटकता है। अन्तर है j और z का। उर्दू में चार ऐसे वर्ण हैं जिन से ज़ की आवाज़ आती है ज़ाल (ذ), ज़े (ز), ज़ुआद (ض), ज़ोए (ظ), और एक वर्ण जिस से ज की आवाज़ आती है, जीम (ج)। कई हिन्दी भाषी उत्साह में (लिखने या बोलने में) वहाँ भी ज़ की आवाज़ निकालते हैं जहाँ ज की आवाज़ आनी चाहिए जैसे जलील की जगह ज़लील, मजाल की जगह मज़ाल, जाहिल की जगह ज़ाहिल, आदि। ऐसी ग़लती से बचना चाहिए, क्योंकि इस से शब्द का अर्थ ही बदल सकता है  जैसे, मैं दुल्हन को सज़ा (सजा) दूँगी। ऐसे में फिर वही नुस्ख़ा दोहराऊँगा जब सन्देह हो तो नुक़्ते से बचें। नुक़्ता न लगाने का बहाना है, पर ग़लत जगह लगाने का नहीं है। ज और ज़ के कुछ और उदाहरण ज़रूर, ज़ुल्म, जुर्म, राज़ (रहस्य), सज़ा, ज़बरदस्त, जमील, जलाल, वजूद, ज़ंजीर, मिज़ाज, ज़्यादा, जज़ीरा (द्वीप) आदि
उर्दू की लिपि की इन विसंगतियों को देखते हुए आप को यह नहीं लगता कि उर्दू वालों को भी देवनागरी अपनानी चाहिए? मैं तो ऐसा ही मानता हूँ, पर चलिए उस के बारे में फिर कभी बात करते हैं। इस लेख, यानी नुक़्ते की बात, पर आप के ख़्यालात मुख़्तलिफ़ हों, या आप कोई नुक़्ताचीनी करना चाहते हों तो टिप्पणियों के डिब्बे का प्रयोग करें।

Saturday, August 6, 2011

राष्ट्र के लिए अन्ना हजारे का साथ देना ही होगा


क्या आप अन्ना हजारे के करप्शन के खिलाफ देश व्यापी आंदोलन में शामिल रहे हैं ? क्या आप ने अन्ना के साथ जनंतर-मंतर पर अपने अमूल्य कहे जाने वाले समय का कोई हिस्सा दिया है ? अपने राज्य, जिला या स्थानीय इलाके में ही क्या आप ने अन्ना के समर्थन में कैंडल जलाकर हो हल्ला मचाया है ? या आप सिर्फ घरों में बैठकर ही अन्ना की तरफदारी करते रहे ?

जब अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन कर रहे थे तो पूरे देश में जो लौ जलनी चाहिए थी उसे जलाने में हम कामयाब नहीं हो सके । भ्रष्टानेताओं को डरा नहीं सके, और सरकार के साथ मिलकर देशद्रोही वाला बर्ताव कर रहे चंद नेताओं को हम सबक नहीं दे सके ताकि उनकी जुबानें बेलगाम न हों । अन्ना ने अचानक एक दिन में ही अनशन का यह फैसला नहीं कर लिया था बल्कि इसके लिये महीनों पहले सरकार को अल्टीमेटम दिया और सरकार के बहरे होने पर आंदोलन के लिए जनसमर्थन भी मांगा था । लेकिन एक अरब से अधिक की तादाद में भ्रष्टाचार पीड़ितों की संख्या होने के बाद भी हम अन्ना के इस आंदोलन का भरपूर फायदा नहीं उठा सके। जंतर-मंतर तहरीर चौक में तबदील नहीं हो सका और सरकार ने जल्दीबाजी में हां-हां कर सबको शांत कर दिया । लेकिन हक़ीक़त में अन्ना और हम सब जीते नहीं हैं बल्कि जीत षण्यंत्रकारी सरकार की हुई है बर्ना आंदोलन के समय मांद में रहने वाले कांग्रेस और बाकी दलों के दलाल मीडिया में खुलकर शेख-चिल्ल-पो करते नजर नहीं आते । हार हमारी भी है जो हमने इस आंदोलन को एक प्रोग्राम कि तरह घरों में बैठकर टीवी चैनलों पर देख कर ही खुश होते रहे ।


जिस मीडिया के नियंत्रण की कवायद लगातार चलती रहती है वह मीडिया एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति निभाने में कामयाब रहा । बीते छह महीनों में लगातार दूसरी बार है जब भारतीय मीडिया ने अपने परिपक्व होने का पूरा प्रमाण दिया है । पहली बार अयोध्या फैसले के समय और इस बार अन्ना अनशन के समय, यानी मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी को समझा है। भारतीय लोकतंत्र में तानाशाही नहीं है लेकिन चुने जाने के बाद जनता की न सुनने का रोग पुराना है । ऐसे में यह जरूरी है कि मीडिया जन भावनाओं को इन लोकतंत्र के नुमाईंदों तक पहुंचाए। मीडिया के सहयोग कि बिना आज कोई भी जनआंदोलन अपना प्रभाव दिखा पायेगा यह कहना सही नहीं होगा । अन्ना हजारे से पहले टीन शेषन जैसा धर्मवीर, कर्मवीर, जुझारू योद्धा भी इस धरती पर भ्रष्टाचार का अंत करने की लाख कोशिश कर चुका है । तब शेषन की बातों को जन समर्थन में तबदील करने वाला मीडिया नहीं था । मीडिया की पहुंच इस स्तर तक नहीं थी जिस पैमाने पर आज है । यही वजह रही कि टीएन शेषन जैसा शक्स भी भ्रष्टाचार की जंग में हार गया । यही नहीं भ्रष्टाचार को लेकर विस्मय की लहर पैदाकरने वाला शेषन चुनावी अनाप-शनाप खर्च पर लगाम लगाने की लाख कोशिश के बाद भी कोई करिशमा नहीं दिखा पाया । अंत में थक-हार कर शेषन ने नेताओं की जमात में शामिल होकर भी अपनी मुहिम को जारी रखने की कोशिश की लेकिन वहां भी शेषन फेल रहे ।


वर्ष 1997 में वह शिवसेना के प्रत्याशी के रूप में राष्ट्रपति का चुनाव हार गए, जबकि 1999 में गांधीनगर में कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ 1 लाख 80 हजार मतों से हारे। दो बार हारने के बाद शेषन राजनीति से रिटायर हो गए और चेन्नई में शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं, जहां उन्हें रोटरी क्लब जैसी संस्थाओं द्वारा तो गले लगाया गया, लेकिन जनता द्वारा भुला दिया गया। शेषन की असफला के पीछे आज की तरह मीडिया का न होना ही सबसे बड़ी वजह रही । जो एक आदमी की आवाज को आम आदमी की आवाज बनने में माध्यम का काम करती है ।


सवाल अन्ना का ही नहीं है सवाल हर उस शक्स का है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ या तो कभी शंखनाद कर चुका है या कर रहा है । अन्ना एक महापुरुष हो सकते हैं और उनका आंदोलन एक विचारधारा का प्रबल आंदोलन हो सकता है लेकिन भ्रष्टाचार का पालन-पोषक करने वाले भ्रष्मासुरों की कोई कमी नहीं है और न ही उनकी क्षमता पर ही कोई संदेह किया जा सकता है । क्योंकि दैत्य हमेशा देवताओं से प्रबल और धूर्त होते हैं । टीन शेषन को हरा देने वाले नेताओं की ताकत तो पहले के मुकाबले आज ज्यादा है ही, संख्या भी सैकड़ों गुणा अधिक है । ऐसे में अन्ना हजारे को भगवान राम की यह सूक्ति मान कर चलनी होगी कि "विनय न मानत जल्धि जड़ गये तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीति" । यह मानकर चलाना होगा कि जिस तरह से भगवान राम के कई दिन अनुनय विनय के बाद भी जब समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तो राम ने भय पैदा किया तब जाकर रास्ता भी मिला और समुद्र से मित्रता भी हुई । ठीक उसी तर्ज पर अगर सरकार और उसके साथ करप्शन में शामिल नेताओं में अगर डर नहीं पैदा किया गया तो ये लोग मेढ़कों की तरह ऐसे ही टर्र-टर्र करते रहेंगे और हमे बांधित करते रहेंगे। भगवान राम के साथ बानर सेना थी तो अन्ना के साथ पूरा देश है ।


हनुमान सरीखे संदेश वाहक से भी ताकतवर आज हमारा मीडिया है जो पल भर में लोकहित में खड़ा दिखाई देता है । हमें डरने की जरूरत कतई नहीं है । हमें किरन बेदी, अरविंद केजरीवाल और भूषण पिता-पुत्र का जो मेल मिला है वह हजारों साल बाद भी शायद मिलने वाला नहीं है । करपशन के खिलाफ चोट करने का यह सुनहरा मौका हमें जाया नहीं करना होगा । अगर इस बार हम चूक गये तो मानों चुक गये । फिर नेता हमारा मजाक उड़ायेंगे और कोई भी साफ सुथरी छवि का चेहरा अगुवाई करने से डरेगा । बीते अनशन में हम भले ही शामिल न रहें हों लेकिन अब अगर सरकार फिर नहीं चेतती है तो हमें विजय चौक को तहरीर चौक बनाने से पीछे नहीं हटना होगा ।


याद रहे आदमी से बड़ा उसका संदेश होता है । आप भले ही किसी स्तर पर प्रदर्शन कर रहें हों लेकिन आप का संदेश तो अमूल्य है ही । हमें लोकतंत्र का मजाक बनाने वाले मदारियों को बेनकाब करना होगा । उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब भी देना होगा । आज पैसे के बल पर चुनाव जीतने वाले लोकतंत्र के भष्मासुरों को चिंहित उनको चुनाव लड़ने से रोकना होगा, और चुनाव लड़ने की सोच रखने वाले स्वच्छ पढ़े लिखे युवा पीढ़ियों को आगे भी लाना होगा । तभी भ्रष्टाचार का खात्मा हो सकता है । अमर सिंह और दिग्विजय सिंह को अन्ना और उनकी टीम अगर दुश्मान नजर आ रही है तो यह नाहक नहीं है इसकी सबसे बड़ी वजह है नई पार्टी बनाकर लोकतंत्र में फिर से सिक्का जमाने की कोशिश में लगे अमर और दिग्गी का जेल जाने का डर ही है। अमर को पता है जिस दलाली के बल पर वे कुख्यात हुये हैं उसकी सजा मिलना अभी बाकी है और यह काम देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था भी नहीं कर सकती लेकिन जन लोकपाल कर सकता है ।


अगर लोकपाल बिल अपने स्वरूपों में पास हो गया और अपनी जिम्मेदारियों से काम करने लगा तो अमर सरीखे वो नेता जो पहले ही अन्ना से डरे घिघिया रहे हैं ।
नेताओं को सलाखों के पीछे होने में दो साल से अधिक का वक्त नहीं लगेगा । अन्ना टीम का विरोध करने वाले चंद नेताओं पर नकेल उनकी पार्टियां भले ही न लगा पा रहीं हो लेकिन मीडिया और हम सबको इनकी बोलती बंद करनी ही होगी वर्ना ये हमें नपुंसक ही समझेंगे। हमें आगे बढ़ कर इनका जवाब देना होगा और यह साबित करना होगा कि किसी स्तर पर भ्रष्टाचार को पनाह नहीं मिलेगी और अन्ना अकेले नहीं हैं, अन्ना के साथ एक अरब बीस करोड़ का हुजूम भी है जो किसी भी सफारी छाप नेता की एसी गाड़ी पंचर कर सकता है । हमें नेताओं के अंदर यह डर पैदा करनी ही होगी । लोकपाल बिल बनाने के लिए बनी कमेटी में सरकार की ओर से शामिल मंत्रियों की दादागिरी हम सब ने देखी है । अगर यह दादागिरी नहीं है तो फिर क्या है कि बैठकों की रिकार्डिंग को सार्वजनिक नहीं किया गया । कुल मिलाकर सत्ता पक्ष हो या विपक्ष या छोटे-छोटे राजनीतिक दल हर किसी को पता है आन्ना के लोकपाल से नेताओं की दादागिरी और अकूत कमाई पर संकट आ जायेगा । नेतागिरी एक जिम्मेदार नौकरी की तरह करनी होगी और जनता को जवाब भी देना होगा। ऐसे में अगर सरकार सही वास्तविक लोकपाल बिल जो करप्शन पर लगाम लगाये कैबिनेट में पास नहीं करती है तो 16 अगस्त से देश व्यापी प्रदर्शन के लिये हम सब को तैयार रहना चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि एक और टीएन शेषन इस देश के इस भ्रष्टाचार रूपी दानवों से जंग हार जाये।


अखिलेश कृष्ण मोहन
संवाददादता-चैनल वन न्यूज़, नोएडा
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