Friday, August 27, 2010

कौन झूठा कौन सच्चा

आज जब न्यायपालिका के फैसले पर कोई प्रतिक्रिया नहीं देना चाहता या कहे कि किसी को यह अधिकार ही नहीं है कि वह न्यायालय के फैसलों उपर अगुली उठाये लेकिन रोहित शेखर बनाम पूर्व राज्यपाल नारायण दत्त तिवारी के मामले में जिसमें रोहित नारायण दत्त को अपना पिता बता रहा है और वो भी ऐसे समय में जब दोनों आमने सामने है लेकिन रोहित अपने आप को साबित करने के लिये दर-दर भटक रहा है । रोहित की मां उज्ज्वला शर्मा कांग्रेसी नेता है और नारायण दत्त तिवारी के साथ उनकी दोस्ती रही है । रोहित नारायण दत्त तिवारी को अपना पिता बताते रहे है । यह मामला नया नहीं है जब नरायण दत्त तिवारी उत्तराखंड के मुख्यमंत्री थे उस समय से ही यह मामला उठता रहा है लेकिन एक तरफ राजनेता हैं तो दूसरी तरफ एक युवा जो अपने को यह साबित करने की कोशिश में है उसके पिता कौन हैं। हमारे देश में यह अपने आप में यह पहला मामला है जब एक पुत्र अपने पिता के डीएनए टेस्ट के लिये कोर्ट से गुहार लगा रहा है और कोर्ट से भी उसे कोई न्याय मिलता नहीं दिख रहा । हाई कोर्ट ने एक बार तो रोहित की अर्जी को खारिज़ भी कर दिया था लेकिन अब मामला सुप्रीम कोर्ट में है और हो सकता है नारायण दत्त तिवारी को डीएनए टेस्ट कराने पर बाध्य होना ही पड़े । अभी तो अदालत ने 84 वर्षीय तिवारी को 75 हज़ार का जुर्माना लगाया है, जो रकम रोहित को दी जायेगी, सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश के साथ 21 सितंबर को फिर तारीख दे दी है, लेकिन यह एक ऐसा मामला है जिसे हल करना बेहद आसान है । रोहित की मांग को किसी भी लिहाज से गलत नहीं करार दिया जा सकता । रोहत का दावा है कि तिवारी रोहित के जैविक पिता है । अगर हक़ीक़त को जनना है तो डीएनए टेस्ट ही एक मात्र विकल्प है जो गलत नहीं हो सकता लिहाजा टेस्ट किया जाना चाहिये था लेकिन एनडी तिवारी का टेस्ट आज तक नहीं हो पाया । अगर तिवारी जी स्वर्गवासी हो जाते है तो फिर यह तय कौन करेगा कि क्या हक़ीक़त थी । 84 साल के नारायण दत्त तिवारी इस पूरे मामले के असली सबूत है लिहाजा डीएनए टेस्ट जल्द हो और यह साफ होना चाहिये कि कौन झूठा कौन सच्चा । डीएनए टेस्ट से इनकार करना नारायण दत्त तिवारी के उपर अंगुलिया ही उठायेगा। बेहतर होता नारायण दत्त तिवारी सच्चाई को स्वीकार करते और जो भी सच है वह सामने आता ।

राजधानी में डेंगू

राजधानी में डेंगू
दिल्ली में यमुना नदी का पानी जितनी तेजी से बढ़ रहा है उससे तेज दिल्ली में रहने वाले लोगों की परेशानिया बढ़ रही है ।
दिल्ली की सड़कों पर 3 घंटे की बारिश में ही पानी जमा हो जाता है और कहीं कहीं तो नाव भी चलने लगी है । पिछले 10 दिन से दिल्ली निवासियों को जल जमाव, वारिश और जाम इन तीन समस्याओं से जूझना पड़ रहा है । दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पहले तो वारिश की परेशानियों को मानने को तैयार ही नहीं थी लेकिन जब सड़कों पर नाव भी दौड़ने लगी तो शीला ने भी मान ही लिया कहीं न कहीं लापरवाहियां हुई है । इसे ठीक करने की कोशिश की जायेगी । पिछले 12 साल से दिल्ली में शीला सरकार को बारह बारिशों के मौसम से दो चार होना पड़ा होगा और हर बार बारिश में यही दिक्कतें देश की राजधानी के सामने होती है । दिल्ली में जल जमाव से होने वाली दिक्कतें केवल दिल्ली वासियों को ही नहीं बल्कि विदेशी पर्यटक मेहमानों को भी इससे दो चार होना पड़ता है । ऐसा नहीं है कि यह पहली बार है और मुख्यमंत्री अपनी जिम्मेदारियों का ठीकरा दूसरों के उपर फोड़ कर सफाई दे देंगी। हर साल होने वाले जल जमाव से निपटने के कोई प्रबंध नहीं किये गये । इतना ही नहीं दिल्ली में हर साल सैकड़ों लोंग बारिश में जल जमाव से पैदा होने वाले मच्छरों से फैलने वाले डेंगू से मर जाते है जिसका न तो कोई सरकार के पास सही आंकड़ा है न ही सरकार ने कोई उपाय किये जिससे राजधानी दिल्ली में डेंगू से निपटा जा सके । आज भी बारिश से उतना डर लोगों को नहीं है जितना बारिश से जमा होने वाले पानी से फैलने वाले डेंगू से । दिल्ली सरकार का स्वास्थ्य अमला भले ही हर साल करोंड़ों रुपये डेंगू की रोकथाम के नाम पर खर्च कर देता हो लेकिन डेंगू न फैलने के इंतजामों में हमेशा कोताही बरती जाती रही है । न तो पानी के जल जमाव न होने का उचित बंदोबस्त किया गया और न ही नालियों की साफ सफाई पर ही ध्यान दिया जाता रहा, कुल मिलाकर जो समस्या 10 साल पहले थी वह आज भी है और राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों को लेकर हो रहे निर्माण कार्य के कारण खुदायी से जल जमाव से यह समस्या और बढ़ी ही है । दिल्ली नगर निगम के मेयर पृथ्वीराज साहनी तो बारिश से हो रही समस्या को दिल्ली सरकार के ही सिर फोड़ते हुये इसे समस्या से निपटना भगवान भरोसे बताया है । कुल मिलाकर देश की राजधानी दिल्ली का यह हाल है तो फिर दूर-दराज के इलाकों में विकास का क्या हाल होगा । दिल्ली में डेंगू, जल जमाव और लोगों की परेशानियां दिल्ली ही नहीं केंद्र सरकार की ग्रामीण नीतियों की भी पोल खोलती है ।

कहां गये बारुद से लदे ट्रक ?

देश में हथियार बारुद और सेना के उपकरण कितने महफूज है और इनकी निगरानी किस तरह की जाती है इसकी पोल खोलने के लिये राजस्थान के धौलपुर से मध्यप्रदेश के लिये चले विस्फोटकों से लदे 164 ट्रक का गायब होना ही काफी है । डेढ़ महीने पहले चले इन ट्रकों में पुलिस के मुताबिक कुल 848 मीट्रिक टन विस्फोटक है और लाखों की संख्या में डेटोनेटर । पहले तो इनकी संख्या को लेकर ही सही आंकड़ा नहीं लगाया जा सका और यह संख्या 61 बतायी गयी लेकिन अब तफतीश करने पर यह पता चल रहा है कि गायब ट्रकों की यह संख्या 164 है । पुलिस खोज- बीन के बाद भी कोई सुराग नहीं लगा सकी है । 164 ट्रकों का विस्फोटकों के साथ गायब हो जाना यह बताता है कि हमारा सुरक्षा तंत्र किस तरह हमारी हिफाजत कर सकता है । हमारा खुफिया तंत्र कितना चौकस है और हम कितने महफूज । छोटे पैमाने पर विस्फोटकों की खेप बरामद होने पर पुलिस वाहवाही लूटने पहुंच जाती है, मीडिया को बुलाकर फोटो खिचवाई जाती है और पूरा पुलिस महकमा पुरस्कार देने और लेने की दौड़ में शामिल हो जाता है । लेकिन इतने बड़े पैमाने पर लापरवाही के बाद भी किसी विभाग को कोई ख़बर न हो यह कैसे हो सकता है । सैकड़ों मीट्रिक टन विस्फोटक और लाखों की संख्या में डेटोनेटरों का लापता होना न केवल पुलिस की कार्यशैली पर सवाल उठाते है बल्कि देश की सुरक्षा के लिये बड़ा खतरा भी बन सकते है । गृहमंत्रालय की निगरानी में बाकायदा लाइसेंसिग प्रक्रिया पूरी होने के बाद ही ऐसे सौदों को रवाना किया जाता है तथा पूरी तरह सावधानी और गोपनीयता भी बरकार रखी जाती है ऐसे में यह वाकया अपने आप में सुरक्षा तंत्र और षणयंत्रकारी तत्वों की मिली भगत की ओर ही इशारा करता है । ट्रक नंबरों और ट्रक मालिकों से भी कोई जानकारी अभी नहीं मिल सकी है । मई जून महीने में 61 ट्रक रवाना किये गये और इसके बाद 103 ट्रक की रवानगी की गयी, कुल मिलाकर 164 ट्रकों का न मिलना यह भी सवाल उठाते है कि एक महीने तक यह संख्या ही तय नहीं हो पा रही थी कि आखिर में गायब संख्या कितनी है । यानी इस पूरे विस्फोटकों के ट्रांस्पोर्टेशन में किसी माफिया का ही हाथ है । यह भी हो सकता है कि ये हथियार आतंकवादियों या नक्सलियों के हाथ लग गये हो जो एक बड़ा खतरा हो सकता है । सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में भी दो महीने बाद भी विस्फोटकों से लदे 164 ट्रकों का न मिलना हमारे देश की चौकस सुरक्षा इंतजामों के पोल ही खोलता है । ( अमर भारती दैनिक संपादकीय 28 अगस्त 2010)

"नकलची न्यायमूर्ति"


हैदराबाद हाई कोर्ट ने आंध्र प्रदेश के पांच जजों को निलंबित कर दिया है । जजों को यह सजा नकल करने के जुर्म में दी गयी है । वारंगल जिले के पांच जजों को कानून की स्नातकोत्तर परीक्षा के दौरान नकल करते पकड़ा गया । कुल आठ नकलची पकड़े गये थे जिनमें वारंगल के सीनियर जिला जज हनुमंतराव, बापतला के सीनियर सिविल जज निवास चारी ,रंगारेड्डी ज़िले के सेकेंड सिविल जज विज्येंद्र रेड्डी,सीनियर सिविल जज अजीत सिंह राव और अनंतपुर के सिविल जज एम कृष्णप्पा शामिल है बाकी 3 कोर्ट के ही कर्मचारी है जिन्हें परीक्षा के दौरान नकल करते पकड़ा गया । यह परीक्षा वारंगल ज़िलें में काकातियां विश्वविद्यालय के ऑर्टस कालेज में चल रही थी। देश के इतिहास में यह पहला मौका है जब जजों को रंगे हाथ पकड़ा गया हो। हमारे देश में नौकरशाही और नेतानगरी तो भ्रष्टचार में डूबी ही है न्यायपालिका पर भी आरोप लगते रहे है कि जज बिकते है और न्याय खरीदा जाता है । पूर्व मुख्य न्यायाधीश के.जी.बालाकृष्णन ने भी इस बात को माना था कि न्यायपालिका में अब भ्रष्टाचार की बू आने लगी है लेकिन उन्होंने यह कहा था कि यह जिला अदालतों में ही अधिक है । लेकिन यहां तो वरिष्ठ जज ही नकल कर रहे है तो फिर न्याय के मामले में वो कहा तक पारदर्शिता बरतते होंगे। जब जज ही जुर्म कर रहे है तो फिर न्यायपालिका और न्यायाधीशों पर विश्वास कैसे किया जा सकता है । लोकतंत्र का सबसे मजबूत खंभा आज भ्रष्टाचार के किस दलदल में डूबा है यह बताने के लिये यह वाक्या काफी है । जब जज नकल कर रहे है तो फिर समाज और देश के सामने ऐसे न्यायधीश क्या आदर्श प्रस्तुत कर पायेंगे। जजों का यह रवैया उनकी योग्यता और पद पर भी सवाल खड़ा करता है । जो खुद ही नकल करते पकड़े जा रहे है वो अहम मुक्दमों में कैसे फैसले लेते होंगे। यह गिरते न्यायाधीशों के चरित्र का नमूना है। कर्नाटक हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश पी.डी दिनाकरण के उपर भ्रष्टाचार के कई आरोप भी लगे यहां तक की उनको महाभियोग की कार्रवाई का समना भी करना पड़ा लेकिन बाद में मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट एच.एस कपाड़िया ने राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल से परामर्श कर दिनाकरण को सिक्किम हाई कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया । ऐसे कई नाम है जो न्याय व्यवस्था से जुड़े लोग है जो न्यायपालिका को बदनाम करते रहे है । सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता आर.के. आनंद को संजीव नंदा केस में पैसा लेते हुये स्टिंग ऑपरेशन भी हुआ आनंद दोषी भी पायेगये । लेकिन क्या न्याय के बिक्रेताओं पर लगाम लगी। हमेशा स्थानीय अदलतों में ही भ्रष्टाचार का आरोप लगाया जाता है जब की इसकी जड़े गहरी है और जो नकल और अकल का हर काम करते है हमारी न्यायपालिका के गिरते स्तर का यह एक छोटा उदाहरण है हक़ीक़त इससे भी भयावह है । (अमर भारती दैनिक में 28 अगस्त 2010 को प्रकाशित )

Thursday, August 5, 2010

अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार की घातक मांग।

अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार की घातक मांग।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष केजी बाला कृष्णन के फांसी की सज़ा पर व्यक्तिगत टिपप्ड़ी से अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार महकमें में खलबली मचीं है । के.जी बालाकृष्णन ने डेथ पेनाल्टी को वर्तमान परिद्रश्य के मुताबिक सही ठहराया था और यह भी कहा था कि अपराध रोकने में फांसी की सजा का योगदान है । ह्युमन राइट्स लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) के संस्थापक ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के इस वक्तव्य पर खेद प्रकट करते हुए कहा है कि जब दुनियां भर में मानवाधिकार की मुहिम का एक मुख्य मुद्दा डेथ पेनाल्टी को ख़त्म करना है। ऐसे में भारतीय मानवाधिकार आयोग के मुखिया का यह कथन हैरान कर देने वाला है । मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार की खुले दिल से पैरवी करने वाले सदष्यों को यह सोचना होगा कि अभी तक के इतिहास में कितने लोगों को फांसी की सज़ा से समाज को ख़मियाजा उठाना पड़ा है । मानवाधिकार मानव के अधिकारों की रक्षा करता है लेकिन जहां समाज के लिये ख़तरे की आशंका हो यानी कई मानव के अधिकारों पर चोट पहुंचाने की साजिश हो वहां पर अपराधी को फांसी क्यों नहीं दी जा सकती । मानवाधिकार संगठनों को यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत में फांसी दिये जाने की दर बहुत कम है इसका भारत ख़ामियाजा भी भुगतना पड़ा है । अगर आतंकवादियों को फांसी दे दी गयी होती तो 1999 में कांधार विमान अपहरण और 20 साल पहले मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण की दास्तान न रची गयी होती और जिसके बदले आतंकवादियो की रिहाई न होती । कांधार विमान अपहरण कांड में रुपेन कत्याल समेत आधा दर्जन निर्दोष लोगों की हत्याये आतंकवादियों ने की थी, इसके बाद भारतीय ज़ेलों में बंद आतंकी सरगनाओं को छोड़ने पर भारत को मजबूर होना पड़ा । क्या मानवाधिकर आयोग इन सब घटनाओं पर गौर करेगा ।जिसका ख़ामियाजा भारत आज भी उठा रहा है । फांसी का अपना खौफ़ आज भी है । जिसे नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । मानवाधिकार की दलील है कि डेथ पेनाल्टी को आजीवन कारावास में बदला जाये लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि आजीवन कारावास की सजा काटने के बाद अपराधी में सुधार आयेगा ही और अपराधी अपराध की दुनियां में तेजी से पदार्पण नहीं करेगा, समाज में वापसी के बाद वह अपराध नहीं करेगा और समाज के लिये ख़तरा नहीं होगा । कई ऐसे अपराधी है जो जमानत पर बाहर आते ही आतंक का नया रुप ले लेते है और पुलिस की पकड़ से बाहर हो जाते है । क्या इसका कोई कारगर उपाय मानवाधिकार आयोग के पास है । हमारी न्यायिक प्रक्रिया काफी धीमी है कई मामलों में आरोप सिद्ध होने और दोष साबित होने में इतना वक्त लग जाता है कि दोषी अपनी सजा का एक बड़ा हिस्सा जेल में पहले ही काट चुका होता है । ऐसे में अगर दोषी को हर मामले में आजीवन कारावास की सज़ा देने का नियम बन जायेगा तो कई दोषी सजा मिलने के तुरंत बाद ही जेल की सलाखों के बाहर होगें और समाज में अपराध की दुनिया बनायेंगे। क्या कभी मानवाधिकार की दलील देने वालों ने इसकी फिक्र की । तब यह भी होगा कि अपराधी अपराध करने से पहले ही अपनी आजीवन कारावास के बाद की ज़िंदगी का पूरा खाका तैयार कर लेगा और धड़ल्ले से अपराध करेगा, इससे अपराध की बाढ़ आ जायेगी और देश के सामने संकट पैदा होगा । अभी हमारे देश में कई ऐसे अपराधी ज़ेलों में बंद हैं जिनकी फांसी होनी है लेकिन फाईल प्रदेश सरकार से लेकर महामहिम राष्ट्रपति के पास ही अटकी है । आमिर अजमल कसाब और अफ़जल गुरु देश के लिये कितने ख़तरनाक है इसकी परवाह मानवाधिकार अयोग को शायद नहीं है । अगर होती तो ऐसी मांग न उठती ।
मानवाधिकार के पैरोकारों को देश समाज और आम आदमी को सुरक्षित रखने के लिये डेथ पेनाल्टी को खत्म करने की मांग नहीं बल्कि प्रक्रिया को तेज करने की मांग करनी चाहिये नहीं तो एक और कांधार और मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद की कहानी को दोहराते देर नहीं लगेगा । मानवाधिकार उनकी रक्षा के लिये होते है जो मानवता के अर्थ को समझते हो न कि उनके लिये जो मानवता को नष्ट करना चाहते है । मानवाधिकार आयोग और न्यायपालिका को मिलकर समाज को अपराध मुक्त बनाना है न कि अपराध को जिंदा रख कर कई अपराध पैदा करने की। राष्ट्रीय मानवाधिकार के अध्यक्ष के.जी बालाकृष्णन के कथन पर बखेड़ा खड़ा करने की जरुरत नहीं अक्षरसः पालन करने की जरुरत है । हमे नहीं भूलना चाहिये कि हमारा क़ानून अभी भी दुर्लभत्म मामलों में ही फांसी की सज़ा देता है । ऐसे में फांसी की सज़ा ख़त्म होने से हर हाल में अपराध बढ़ेगा ही ।

अखिलेश पाठक
पत्रकार
अमर भारती (दैनिक हिंदी समाचार पत्र में प्रकाशित)
दिल्ली
Mail. ID. akhileshnews@gmail.com