Saturday, August 6, 2011

राष्ट्र के लिए अन्ना हजारे का साथ देना ही होगा


क्या आप अन्ना हजारे के करप्शन के खिलाफ देश व्यापी आंदोलन में शामिल रहे हैं ? क्या आप ने अन्ना के साथ जनंतर-मंतर पर अपने अमूल्य कहे जाने वाले समय का कोई हिस्सा दिया है ? अपने राज्य, जिला या स्थानीय इलाके में ही क्या आप ने अन्ना के समर्थन में कैंडल जलाकर हो हल्ला मचाया है ? या आप सिर्फ घरों में बैठकर ही अन्ना की तरफदारी करते रहे ?

जब अन्ना भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन कर रहे थे तो पूरे देश में जो लौ जलनी चाहिए थी उसे जलाने में हम कामयाब नहीं हो सके । भ्रष्टानेताओं को डरा नहीं सके, और सरकार के साथ मिलकर देशद्रोही वाला बर्ताव कर रहे चंद नेताओं को हम सबक नहीं दे सके ताकि उनकी जुबानें बेलगाम न हों । अन्ना ने अचानक एक दिन में ही अनशन का यह फैसला नहीं कर लिया था बल्कि इसके लिये महीनों पहले सरकार को अल्टीमेटम दिया और सरकार के बहरे होने पर आंदोलन के लिए जनसमर्थन भी मांगा था । लेकिन एक अरब से अधिक की तादाद में भ्रष्टाचार पीड़ितों की संख्या होने के बाद भी हम अन्ना के इस आंदोलन का भरपूर फायदा नहीं उठा सके। जंतर-मंतर तहरीर चौक में तबदील नहीं हो सका और सरकार ने जल्दीबाजी में हां-हां कर सबको शांत कर दिया । लेकिन हक़ीक़त में अन्ना और हम सब जीते नहीं हैं बल्कि जीत षण्यंत्रकारी सरकार की हुई है बर्ना आंदोलन के समय मांद में रहने वाले कांग्रेस और बाकी दलों के दलाल मीडिया में खुलकर शेख-चिल्ल-पो करते नजर नहीं आते । हार हमारी भी है जो हमने इस आंदोलन को एक प्रोग्राम कि तरह घरों में बैठकर टीवी चैनलों पर देख कर ही खुश होते रहे ।


जिस मीडिया के नियंत्रण की कवायद लगातार चलती रहती है वह मीडिया एक बार फिर अपनी जिम्मेदारी को भलीभांति निभाने में कामयाब रहा । बीते छह महीनों में लगातार दूसरी बार है जब भारतीय मीडिया ने अपने परिपक्व होने का पूरा प्रमाण दिया है । पहली बार अयोध्या फैसले के समय और इस बार अन्ना अनशन के समय, यानी मीडिया ने अपनी जिम्मेदारी को समझा है। भारतीय लोकतंत्र में तानाशाही नहीं है लेकिन चुने जाने के बाद जनता की न सुनने का रोग पुराना है । ऐसे में यह जरूरी है कि मीडिया जन भावनाओं को इन लोकतंत्र के नुमाईंदों तक पहुंचाए। मीडिया के सहयोग कि बिना आज कोई भी जनआंदोलन अपना प्रभाव दिखा पायेगा यह कहना सही नहीं होगा । अन्ना हजारे से पहले टीन शेषन जैसा धर्मवीर, कर्मवीर, जुझारू योद्धा भी इस धरती पर भ्रष्टाचार का अंत करने की लाख कोशिश कर चुका है । तब शेषन की बातों को जन समर्थन में तबदील करने वाला मीडिया नहीं था । मीडिया की पहुंच इस स्तर तक नहीं थी जिस पैमाने पर आज है । यही वजह रही कि टीएन शेषन जैसा शक्स भी भ्रष्टाचार की जंग में हार गया । यही नहीं भ्रष्टाचार को लेकर विस्मय की लहर पैदाकरने वाला शेषन चुनावी अनाप-शनाप खर्च पर लगाम लगाने की लाख कोशिश के बाद भी कोई करिशमा नहीं दिखा पाया । अंत में थक-हार कर शेषन ने नेताओं की जमात में शामिल होकर भी अपनी मुहिम को जारी रखने की कोशिश की लेकिन वहां भी शेषन फेल रहे ।


वर्ष 1997 में वह शिवसेना के प्रत्याशी के रूप में राष्ट्रपति का चुनाव हार गए, जबकि 1999 में गांधीनगर में कांग्रेस समर्थित प्रत्याशी के तौर पर लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ 1 लाख 80 हजार मतों से हारे। दो बार हारने के बाद शेषन राजनीति से रिटायर हो गए और चेन्नई में शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं, जहां उन्हें रोटरी क्लब जैसी संस्थाओं द्वारा तो गले लगाया गया, लेकिन जनता द्वारा भुला दिया गया। शेषन की असफला के पीछे आज की तरह मीडिया का न होना ही सबसे बड़ी वजह रही । जो एक आदमी की आवाज को आम आदमी की आवाज बनने में माध्यम का काम करती है ।


सवाल अन्ना का ही नहीं है सवाल हर उस शक्स का है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ या तो कभी शंखनाद कर चुका है या कर रहा है । अन्ना एक महापुरुष हो सकते हैं और उनका आंदोलन एक विचारधारा का प्रबल आंदोलन हो सकता है लेकिन भ्रष्टाचार का पालन-पोषक करने वाले भ्रष्मासुरों की कोई कमी नहीं है और न ही उनकी क्षमता पर ही कोई संदेह किया जा सकता है । क्योंकि दैत्य हमेशा देवताओं से प्रबल और धूर्त होते हैं । टीन शेषन को हरा देने वाले नेताओं की ताकत तो पहले के मुकाबले आज ज्यादा है ही, संख्या भी सैकड़ों गुणा अधिक है । ऐसे में अन्ना हजारे को भगवान राम की यह सूक्ति मान कर चलनी होगी कि "विनय न मानत जल्धि जड़ गये तीन दिन बीत, बोले राम सकोप तब भय बिनु होय न प्रीति" । यह मानकर चलाना होगा कि जिस तरह से भगवान राम के कई दिन अनुनय विनय के बाद भी जब समुद्र ने रास्ता नहीं दिया तो राम ने भय पैदा किया तब जाकर रास्ता भी मिला और समुद्र से मित्रता भी हुई । ठीक उसी तर्ज पर अगर सरकार और उसके साथ करप्शन में शामिल नेताओं में अगर डर नहीं पैदा किया गया तो ये लोग मेढ़कों की तरह ऐसे ही टर्र-टर्र करते रहेंगे और हमे बांधित करते रहेंगे। भगवान राम के साथ बानर सेना थी तो अन्ना के साथ पूरा देश है ।


हनुमान सरीखे संदेश वाहक से भी ताकतवर आज हमारा मीडिया है जो पल भर में लोकहित में खड़ा दिखाई देता है । हमें डरने की जरूरत कतई नहीं है । हमें किरन बेदी, अरविंद केजरीवाल और भूषण पिता-पुत्र का जो मेल मिला है वह हजारों साल बाद भी शायद मिलने वाला नहीं है । करपशन के खिलाफ चोट करने का यह सुनहरा मौका हमें जाया नहीं करना होगा । अगर इस बार हम चूक गये तो मानों चुक गये । फिर नेता हमारा मजाक उड़ायेंगे और कोई भी साफ सुथरी छवि का चेहरा अगुवाई करने से डरेगा । बीते अनशन में हम भले ही शामिल न रहें हों लेकिन अब अगर सरकार फिर नहीं चेतती है तो हमें विजय चौक को तहरीर चौक बनाने से पीछे नहीं हटना होगा ।


याद रहे आदमी से बड़ा उसका संदेश होता है । आप भले ही किसी स्तर पर प्रदर्शन कर रहें हों लेकिन आप का संदेश तो अमूल्य है ही । हमें लोकतंत्र का मजाक बनाने वाले मदारियों को बेनकाब करना होगा । उन्हें उन्हीं की भाषा में जवाब भी देना होगा । आज पैसे के बल पर चुनाव जीतने वाले लोकतंत्र के भष्मासुरों को चिंहित उनको चुनाव लड़ने से रोकना होगा, और चुनाव लड़ने की सोच रखने वाले स्वच्छ पढ़े लिखे युवा पीढ़ियों को आगे भी लाना होगा । तभी भ्रष्टाचार का खात्मा हो सकता है । अमर सिंह और दिग्विजय सिंह को अन्ना और उनकी टीम अगर दुश्मान नजर आ रही है तो यह नाहक नहीं है इसकी सबसे बड़ी वजह है नई पार्टी बनाकर लोकतंत्र में फिर से सिक्का जमाने की कोशिश में लगे अमर और दिग्गी का जेल जाने का डर ही है। अमर को पता है जिस दलाली के बल पर वे कुख्यात हुये हैं उसकी सजा मिलना अभी बाकी है और यह काम देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था भी नहीं कर सकती लेकिन जन लोकपाल कर सकता है ।


अगर लोकपाल बिल अपने स्वरूपों में पास हो गया और अपनी जिम्मेदारियों से काम करने लगा तो अमर सरीखे वो नेता जो पहले ही अन्ना से डरे घिघिया रहे हैं ।
नेताओं को सलाखों के पीछे होने में दो साल से अधिक का वक्त नहीं लगेगा । अन्ना टीम का विरोध करने वाले चंद नेताओं पर नकेल उनकी पार्टियां भले ही न लगा पा रहीं हो लेकिन मीडिया और हम सबको इनकी बोलती बंद करनी ही होगी वर्ना ये हमें नपुंसक ही समझेंगे। हमें आगे बढ़ कर इनका जवाब देना होगा और यह साबित करना होगा कि किसी स्तर पर भ्रष्टाचार को पनाह नहीं मिलेगी और अन्ना अकेले नहीं हैं, अन्ना के साथ एक अरब बीस करोड़ का हुजूम भी है जो किसी भी सफारी छाप नेता की एसी गाड़ी पंचर कर सकता है । हमें नेताओं के अंदर यह डर पैदा करनी ही होगी । लोकपाल बिल बनाने के लिए बनी कमेटी में सरकार की ओर से शामिल मंत्रियों की दादागिरी हम सब ने देखी है । अगर यह दादागिरी नहीं है तो फिर क्या है कि बैठकों की रिकार्डिंग को सार्वजनिक नहीं किया गया । कुल मिलाकर सत्ता पक्ष हो या विपक्ष या छोटे-छोटे राजनीतिक दल हर किसी को पता है आन्ना के लोकपाल से नेताओं की दादागिरी और अकूत कमाई पर संकट आ जायेगा । नेतागिरी एक जिम्मेदार नौकरी की तरह करनी होगी और जनता को जवाब भी देना होगा। ऐसे में अगर सरकार सही वास्तविक लोकपाल बिल जो करप्शन पर लगाम लगाये कैबिनेट में पास नहीं करती है तो 16 अगस्त से देश व्यापी प्रदर्शन के लिये हम सब को तैयार रहना चाहिए । कहीं ऐसा न हो कि एक और टीएन शेषन इस देश के इस भ्रष्टाचार रूपी दानवों से जंग हार जाये।


अखिलेश कृष्ण मोहन
संवाददादता-चैनल वन न्यूज़, नोएडा
contact_9310669189
mail_akhileshnews@gmail.com

Sunday, April 24, 2011

वर्ना ये हमें नपुंसक ही समझेंगे



क्या आप अन्ना हजारे के करप्शन के खिलाफ देश व्यापी आंदोलन में शामिल रहे हैं ? आप ने अन्ना के साथ जनंतर-मंतर पर अपने अमूल्य कहे जाने वाले समय का कोई हिस्सा दिया है ? अपने राज्य, जिला या स्थानीय इलाके में भी क्या आप ने अन्ना के समर्थन में कैंडल जलाकर हो हल्ला मचाया है ?

Monday, February 14, 2011

काश नीमा को हम बचा पाते !



एनआरआई लड़कों से शादी करने और विदेशों में बसने की बीमारी काफी तेज़ी से भारतीय परिवारों को जकड़ने लगी है । पढ़ा लिखा और उच्चवर्गीय परिवार अपने बेटे और बेटियों को देश में नहीं विदेश में भेज कर ही खुश हो रहा है । विदेशों में बसना धनाड्य होने की एक निशानी भी है । लेकिन यह रोग सुख-शान्ति और जीवन को किस तरह लील रहा है यह जानने कि लिये

Monday, January 31, 2011

खाद्य सुरक्षा का दावा पंक्चर

खाद्य सुरक्षा का दावा पंक्चर



सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने खाद्य सुरक्षा देने का जो दावा किया था उसका अब साकार होना तो दूर, उसके सुझाये विधेयक का कानून बन पाना भी असंभव लग रहा है । खाद्य सुरक्षा समिति की मांगों को प्रधानमंत्री द्वारा गठित रंगराजन समिति ने अव्यवहारिक पाया है और कहा है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को दी जाने वाली सुविधाएं 75 फ़ीसदी लोगों तक नहीं दी जा सकतीं । उसने कहा है कि विधेयक को कानून बनाने से पहले ज़रुरी है कि पैदावार बढ़ायें जाएं। समिति यह नहीं कहा कि आख़िर पैदावार कितनी बढ़ाने की ज़रूरत है । सरकार किस कदर अकर्मण्य हो चुकी है और आम जनता के सरोकारों से कितनी दूर है इसे बड़े ही आसानी से समझा जा सकता है । बेतहाशा बढ़ती महंगाई के बीच संयुक्त राष्ट्रसंघ खाद्य एवं कृषि संगठन ने घोषणा की है कि अगर अनाज उत्पादन पर पर्याप्त रूप से ध्यान नहीं दिया गया तो 2011 में विकासशील देशों में अनाज और महंगे हो सकते हैं । इसी बीच खाद्य एवं कृषि राज्य मंत्री के जरिये यह तथ्य भी सामने आया कि पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं होने के कारण भारत में हर साल करीब 6 करोड़ टन फल एवं सब्ज़ियां बर्बाद हो जातीं हैं । क्या सरकार इस ओर भी ध्यान देगी । ध्यान देने की बात तो यह भी है कि देश में 5400 कोल्ड स्टोरेज़ हैं, जिसमें से 525 ही सरकारी, बाकी निजी क्षेत्रों के हैं । कुल मिला कर यह अपर्याप्त है, फिर भी केंद्र सरकार ने इनकी संख्या बढ़ाने की ओर सोचने का काम अभी शुरू भी नहीं किया है । खाद्य और कृषि संगठन ने इस ओर ध्यान दिया कि नहीं, इसे इससे ही समझा जा सकता है कि अगर ध्यान दिया होता तो अनाज उत्पादन से अधिक वह अनाज के भंडारण पर ज्यादा ध्यान देता और वितरण पर भी न कि केवल पैदावार कम होने का करूणक्रंदन करने का नाटक करता। 

        कुल मिलाकर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् और खाद्य सुरक्षा समिति अपनी ज़िम्मेदारियों को किस तरह ले रही है, इसे इससे ही समझा जा सकता है कि एक तरफ़ अनाज सड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ़ महंगाई की वजह सरकार पैदावार कम होना बता रही है । ऐसा नहीं है कि सरकार अनाजों के सड़ने की ख़बर से अंजान हो। सुप्रीम कोर्ट ने भी सड़ रहे अनाजों को गरीबों और ज़रुरत मंदों में मुफ़्त देने का आदेश दे चुका है, लेकिन सरकार ने न तो अनाजों की सुरक्षा के लिए ही कोई क़दम उठाएं हैं और न ही अनाज़ों का आदेशों के अनुसार वितरण ही किया गया। दूसरी बार यूपीए सरकार बनने पर केंद्र सरकार के मसौदों में खाद्य सुरक्षा नीति ही सबसे अहम थी लेकिन अब वह प्राथमिकता नहीं रही, बल्कि यह विधेयक अब हाशिये पर जा चुका है । 

       खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ने की असली वजह कम उत्पादन नहीं बल्कि पैदा हुये अनाजों के ख़राब रख-रखाव, कालाबाज़ारी और सरकारी वितरण केंद्रों के इतर निजी गोदामों में जमा होना भी है। सरकार को इसे समझना होगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की रंगराजन समिति और युपीए सरकार के बीच जो मतभेद उभर कर समाने आये हैं वो भी चौकाने वालें हैं यह प्रतीत होता है कि सरकार के एजेंडे में आम आदमी को भोजन उपलब्ध करवाना अब नहीं रहा। बेहतर होता यूपीए सरकार अनाज की आर्थिक घपला बाज़ारी को समझती और अपने ही उन दावों पर ख़रा उतरती जो कि उसने चुनाव से पहले और चुनाव के समय पर किये थे।

क्या आप हमारे इस विचार से सहमत हैं अगर नहीं तो हमें लिख भेजिएं हो सकता है हमारी आंखों पर ही पट्टी बधी हो। लेकिन अगर आपके पास इससे भी उम्दा विचार,लेख या स्मरण हैं तो हमें इससे वंचित न रखें।
           आप के हमारे इस लेख पर विचार या सुझाव क्या हैं हमें जरूर बताइयेगा। आप हमें मेल भी कर सकते हैं या अपने अमूल्य विचार हमसे साझा भी कर सकते हैं । हम आप के विचारों को दैनिक अमर भारती में प्रमुखता से प्रकाशित भी करेंगे। 
हमारी वेबसाइट है । www.amarbharti.com
हमारा मेल आईडी है । akhileshnews@gmail.com
अखिलेश कृष्ण मोहन
लेखक दैनिक अमर भारती में उपसंपादक/संवाददाता हैं। 

खाद्य सुरक्षा का दावा पंक्चर क्यों ?

 सोनिया गांधी की अध्यक्षता में बनी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् ने खाद्य सुरक्षा देने का जो दावा किया था उसका अब साकार होना तो दूर, उसके सुझाये विधेयक का कानून बन पाना भी अब असंभव लग रहा है । खाद्य सुरक्षा समिति की मांगों को प्रधानमंत्री द्वारा गठित रंगराजन समिति ने अव्यवहारिक पाया है और कहा है कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को दी जाने वाली सुविधाएं 75 फ़ीसदी लोगों तक नहीं दी जा सकती । उसने कहा है कि विधेयक को कानून बनाने से पहले ज़रुरी है कि पैदावार बढ़ायें जाएं। उसने यह नहीं कहा कि आख़िर पैदावार कितनी बढ़ाने की ज़रूरत है । सरकार कितनी अकर्मण्य हो चुकी है और आम जनता के सरोकारों से कितनी दूर है इसे बड़े ही आसानी से समझा जा सकता है । बेतहाशा बढ़ती महंगाई के बीच संयुक्त राष्ट्रसंघ खाद्य एवं कृषि संगठन ने घोषणा की है कि अगर अनाज उत्पादन पर पर्याप्त रुप से ध्यान नहीं दिया गया तो 2011 में विकासशील देशों में अनाज और महंगे हो सकते हैं । इसी बीच खाद्य एवं कृषि राज्य मंत्री के जरिये यह तथ्य भी सामने आया कि पर्याप्त संख्या में कोल्ड स्टोरेज नहीं होने के कारण भारत में हर साल करीब 6 करोड़ टन फल एवं सब्ज़ियां बर्बाद हो जाती हैं । क्या सरकार इस ओर भी ध्यान देगी । ध्यान देने की बात तो यह है कि देश में 5400 कोल्ड स्टोरेज़ हैं, जिसमें से 525 ही सरकारी हैं। बाकी निजी क्षेत्रों के हैं । कुल मिला कर ये अपर्याप्त हैं, फिर भी केंद्र सरकार इनकी संख्या बढ़ाने की ओर सोचने का काम अभी शुरू भी नहीं किया है । खाद्य और कृषि संगठन ने इस ओर ध्यान दिया कि नहीं, इसे इससे ही समझा जा सकता है कि अगर ध्यान दिया होता तो अनाज उत्पादन से अधिक वह अनाज के भंडारण पर ज्यादा ध्यान देता और वितरण पर भी । कुल मिलाकर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् और खाद्य सुरक्षा समिति अपनी ज़िम्मेदारियों को किस तरह ले रही है, इसे इससे ही समझा जा सकता है कि एक तरफ़ अनाज सड़ रहे हैं तो दूसरी तरफ़ महंगाई की वजह सरकार पैदावार कम होना बता रही है । ऐसा नहीं है कि सरकार अनाजों के सड़ने की ख़बर से अंजान हो। सुप्रीम कोर्ट ने भी सड़ रहे अनाजों को गरीबों और ज़रुरत मंदों में मुफ़्त देने का आदेश दे चुका है लेकिन सरकार ने न तो अनाजों की सुरक्षा के लिए ही कोई क़दम उठाएं हैं और न ही अनाज़ों का आदेशों के अनुसार वितरण ही किया गया। दूसरी बार यूपीए सरकार बनने पर केंद्र सरकार के मसौदों में खाद्य सुरक्षा नीति ही सबसे अहम थी लेकिन अब वह प्राथमिकता नहीं रही, बल्कि यह विधेयक अब हाशिये पर जा चुका है । खाद्य पदार्थों के दाम बढ़ने की असली वजह कम उत्पादन नहीं बल्कि पैदा हुये अनाजों के ख़राब रख-रखाव, कालाबाज़ारी और सरकारी वितरण केंद्रों के इतर निजी गोदामों में जमा होना भी है। सरकार को इसे समझना होगा । प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की रंगराजन समिति और युपीए सरकार के बीच जो मतभेद उभर कर समाने आये हैं वो भी चौकाने वालें हैं यह प्रतीत होता है कि सरकार के एजेंडे में आम आदमी को भोजन उपलब्ध करवाना अब नहीं रहा। बेहतर होता यूपीए सरकार अनाज की आर्थिक घपला बाज़ारी को समझती और अपने ही उन दावों पर ख़रा उतरती जो कि उसने चुनाव से पहले और चुनाव के समय पर किये थे।

आप के हमारे इस विचार पर क्या सुझाव हैं हमे जरूर बताइयेगा। आप हमें मेल भी कर सकते है या अपने अमूल्य विचार हमसे साझा भी कर सकते हैं हमरा मेल आईडी है । akhileshnews@gmail.com

डॉक्टर बेलगाम क्यों ?



अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक सर्जरी डॉक्टर पर आठ वर्षीय ट्यूमर के मरीज के साथ कुकर्म का आरोप लगा है उधर जीटीबी अस्पताल में इलाज के दौरान दवा देने के कुछ देर बाद ही 40 साल के एक व्यक्ति की मौत हो गयी। आरोप है कि मृतक के परिजनों ने जब डॉक्टरी लापरवाही का आरोप लगाया तो डॉक्टरों ने मृतक के परिजनों व महिलाओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा । परिजनों का यह भी आरोप है कि डॉक्टर ने इलाज में लापरवाही बरती थी तथा ठीक से इलाज नहीं किया है। दवा देने के बाद कोई डॉक्टर देखने नहीं आया, घर ले अस्पताल लाते समय वह बिलकुल ठीक था । दवा देने से ही उसकी मौत हुई है ।

          आये दिन डॉक्टरी लापरवाहियों से कई रोगियों की मौत हो जाती है । डॉक्टर मरीजों को ठीक से देखते नहीं और महिला मरीजों के साथ अभद्र व्यवहार करने के कई मामले सामने आते रहते हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं हुये जब कानपुर के एक सरकारी चिकित्सालय में एक लड़की की मौत हो गयी थी । परिजनों ने अस्पताल में दुष्कर्म का आरोप लगाया था। मुम्बई में कुछ दिन पहले ही एक ऐसी ही घटना हुई थी । सवाल यह है कि भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टर हैवान क्यों बनते जा रहें हैं ? मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया उन पर लगाम क्यों नहीं लगा रहा है ? मरीजों के परिजनों की तुलना उच्च दर्जें के शिक्षित-प्रशिक्षित डॉक्टरों से नहीं की जा सकती । लेकिन ऐसा कई बार हुआ जब तीमारदारों से सीनियर जूनियर डॉक्टरों ने मारपीट की । इतना ही नहीं कई बार तो यह तनातनी इतनी बढ़ चुकी है कि हास्पिटल में हड़ताल और बंद का माहौल भी देखने को मिले हैं और इसकी वजह से मरीजों की जानें भी गयीं हैं।

       इन सब मामलों के लिये केवल तीमारदारों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और डॉक्टरों की तानाशाही अक्षम्य है । लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं को संचालित करने वाली संस्थाएं कोई भी ठोस कदम उठाने में नाकाम रही हैं । इससे अलग सरकारी व गैर सरकारी अस्पतालों में भी महिलाओं, लड़कियों से डॉक्टरों द्वारा दुष्कर्म और कुकर्म की    ख़बरों पर भी सरकार कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो पाती है । यही वजह है कि डॉक्टरों की मनमानी और लापरवाही बढ़ती जा रही है । केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को और राज्य सरकारों को मिलकर एक सिस्टम तैयार करना होगा । डॉक्टरों की लापरवाही और मरीजों से छेड़छाड़ समेत दुष्कर्म की घटनाओं को गंभीरता से लेना होगा । यह जिम्मेदारी एमसीआई की है कि वह डॉक्टरों को सदाचार का पाठ कैसे पढ़ाती है । 

आप के सुविचारों का हमें इंतज़ार रहेगा । इस गंभीर विषय पर आप क्या कहना चाहते हैं । इस मर्ज़ की क्या-क्या दवा हो सकती है । हमें आप के विचारों/कमेंटस का इंतजार रहेगा।
लेखक दैनिक अमर भारती के उपसंपादक/संवाददाता हैं 
(आप अपने अमूल्य, सारगर्भित व सम-सामयिक लेख भी हमें भेज सकते हैं हम आपके पत्रों/विचारों व संक्षिप्त टिप्पणियों का मूल्यांकन करने के बाद अमर भारती दैनिक राष्ट्रीय समाचार पत्र/ वेबसाईट www.amarbharti.com पर यथा स्थान सुनिश्चित करेंगे ।) 
हमारा ईमेल आईडी हैः  akhileshnews@gmail.com





  

बेलगाम डॉक्टर



अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के एक सर्जरी डॉक्टर पर आठ वर्षीय ट्यूमर के मरीज के साथ कुकर्म का आरोप लगा है उधर जीटीबी अस्पताल में इलाज के दौरान दवा देने के कुछ देर बाद ही 40 साल के एक व्यक्ति की मौत हो गयी। आरोप है कि मृतक के परिजनों ने जब डॉक्टरी लापरवाही का आरोप लगाया तो डॉक्टरों ने मृतक के परिजनों व महिलाओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा । परिजनों का यह भी आरोप है कि डॉक्टर ने इलाज में लापरवाही बरती थी तथा ठीक से इलाज नहीं किया है। दवा देने के बाद कोई डॉक्टर देखने नहीं आया । घर ले अस्पताल लाते समय वह बिलकुल ठीक था । दवा देने से ही उसकी मौत हुई है । आये दिन डॉक्टरी लापरवाहियों से कई रोगियों की मौत हो जाती है । डॉक्टर मरीजों को ठीक से देखते नहीं और महिला मरीजों के साथ अभद्र व्यवहार करने के कई मामले सामने आते रहते हैं । अभी ज्यादा दिन नहीं हुये जब कानपुर के एक सरकारी चिकित्सालय में एक लड़की की मौत हो गयी थी । परिजनों ने अस्पताल में दुष्कर्म का आरोप लगाया था। मुम्बई में कुछ दिन पहले ही एक ऐसी ही घटना हुई थी । सवाल यह है कि भगवान का दर्जा पाने वाले डॉक्टर हैवान क्यों बनते जा रहें हैं ? मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया उन पर लगाम क्यों नहीं लगा रहा है ? मरीजों के परिजनों की तुलना उच्च दर्जें के शिक्षित-प्रशिक्षित डॉक्टरों से नहीं की जा सकती । लेकिन ऐसा कई बार हुआ जब तीमारदारों से सीनियर जूनियर डॉक्टरों ने मारपीट की । इतना ही नहीं कई बार तो यह तनातनी इतनी बढ़ चुकी है कि हास्पिटल में हड़ताल और बंद का माहौल भी देखने को मिले हैं और इसकी वजह से मरीजों की जानें भी गयीं हैं।
इन सब मामलों के लिये केवल तीमारदारों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता और डॉक्टरों की तानाशाही अक्षम्य है । लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं को संचालित करने वाली संस्थाएं कोई भी ठोस कदम उठाने में नाकाम रही हैं । इससे अलग सरकारी व गैर सरकारी अस्पतालों में भी महिलाओं, लड़कियों से डॉक्टरों द्वारा दुष्कर्म और कुकर्म की ख़बरों पर भी सरकार कोई ठोस कार्रवाई नहीं हो पाती है । यही वजह है कि डॉक्टरों की मनमानी और लापरवाही बढ़ती जा रही है । केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को और राज्य सरकारों को मिलकर एक सिस्टम तैयार करना होगा । डॉक्टरों की लापरवाही और मरीजों से छेड़छाड़ समेत दुष्कर्म की घटनाओं को गंभीरता से लेना होगा । यह जिम्मेदारी एमसीआई की है कि वह डॉक्टरों को सदाचार का पाठ कैसे पढ़ाती है ।

Wednesday, January 19, 2011



बीते एक साल में एनआरआई लड़कों से शादी करने की दिवानगी लड़कियों में जिस तरह से जोर  पकड़ रही है उसने सुख की चाह में उनके जीवन को ही निगलना शुरु कर दिया है । दिल्ली की नीमा के साथ भी ऐसा ही हुआ, आज वह दुनिया में नहीं है काश हम नीमा की जिंदगी को बचा पाते । सवाल यह भी है कि क्या नीमा की मौत से विदेशों की ओर रुख़ कर रहीं लड़कियां कोई सीख लेंगी  बता रहें  हैं अखिलेश कृष्ण मोहन

एनआरआई लड़कों से शादी करने और विदेशों में बसने की बीमारी काफी तेज़ी से भारतीय परिवारों को जकड़ने लगी है । पढ़ा लिखा और उच्चवर्गीय परिवार अपने बेटे और बेटियों को देश में नहीं विदेश में भेज कर ही खुश हो रहा है । विदेशों में बसना धनाड्य होने की एक निशानी भी है । लेकिन यह रोग सुख-शान्ति और जीवन को किस तरह घातक बन रहा है यह जानने कि लिये इंटरनेशनल सेंटर फॉर जिनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नॉलजी(आईसीजेईबी) की साइंटिस्ट नीमा की मौत और लाखों नीमा जैसी लड़कियों की हक़ीक़त को समझना होगा । नीमा कोई कम पढ़ी लिखी नहीं थी और न ही उसके माता-पिता अनपढ़ थे। कालकाजी एक्सटेंशन में रहने वाले डीयू के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वीरेंद्र अग्रवाल की बेटी थी । डॉक्टर अग्रवाल ने भी वही किया जो आज हो रहा है । बेटी ने भी एक सांइटिस्ट पुष्पेंद्र को जीवन साथी चुना, जो विदेश में सेटल हो चुका था, और शायद वह किसी भारतीय भोली-भाली लड़की के शिकार की फिराक में था । बताया जाता है इसकी शुरुआत यहां से हुयी, नीमा की सहेली ने  उस वक्त पुष्पेंद्र के एक दोस्त  से शादी की थी और दोनों अमेरिका में खुशहाल रह रहे थे। उन्होंने ही नीमा के सामने पुष्पेंद्र से शादी का प्रस्ताव रखा था । इंटरनेट और फोन पर नीमा और पुष्पेंद्र की बातचीत शुरु हुई और दोनों ने शादी का फ़ैसला किया । दोनों के परिजन भी शादी को राजी हो गये और शादी हो गयी । नीमा के पिता डॉ. वीरेंद्र अग्रवाल का कहना है कि शादी के पहले पुष्पेंद्र के परिजनों ने कोई भी डिमांड होने से इंकार किया था । लेकिन नीमा के ससुराल जाने जाने के बाद से ही दहेज कम लाने जैसे आरोप लगने लगे और नीम को परेशान किया जाने लगा । नीमा के पिता ने नीमा के ही हाथ दो लाख रुपये भी पुष्पेंद्र को भिजवाए । इसी बीच नीमा को अमेरिका का वीजा मिल गया और वह अमेरिका चली गयी । सवाल यहां दो लाख का नहीं था सवाल उस सोच का था जो पुष्पेंद्र के एक साइंटिष्ट होने के बाद भी नहीं बदली थी । बताया जाता है कि नीमा की सास हर वक्त दहेज की बात पर ख़रीखोटी सुनाया करती थी । इसी बीच साल 2008 में नीमा ने एक बेटी को जन्म दिया और इसी साल नीमा को न्यू जर्सी में जॉब मिल गयी । यानी नीमा भी अब पुष्पेंद्र के उपर निर्भर नहीं रही वह खुद कमाने और अपना खर्च उठाने वाली आत्मनिर्भर महिला बन चुकी थी । नीमा के आत्मनिर्भर होने के बाद भी पुष्पेंद्र-नीमा के बीच तारतम्य ठीक नहीं था और नीमा के पिता की माने तो आगामी 8 फ़रवरी को नीमा बेटी के साथ वापस इंडिया आना वाली थी । लेकिन अचानक 9 जनवरी को ही पुष्पेंद्र ने नीमा के खुदकुशी करने की ख़बर दी । जब नीमा के पिता अमेरिका पहुंचे तो नीमा के स्यूसाइड नोट को देख कर चौक गये स्यूसाइड नोट पर न तो नीमा के हस्ताक्षर थे और न ही उसकी लिखावट नीमा की हैंडराइटिंग से मिल रही थी । इतना ही नहीं पुष्पेंद्र नीमा का दाह संस्कार भी वहीं करवाना चाहता था । लेकिन नीमा के पिता के राजी न होने पर लाश दिल्ली लाई गयी । अमेरिकी अधिकारियों ने भी नीमा के पिता वीरेंद्र अग्रवाल को यह कहते हुये कुछ भी बताने से इनकार कर दिया कि वह पुष्पेंद्र से बात कर चुके हैं । नीमा के पति का कहना है कि उसने खुदकुशी की है लेकिन नीमा के माता-पिता का कहना है कि उसकी हत्या की गयी है या तो उसे खुदकुशी के लिये उकसाया गया है । कुल मिलाकर नीमा की मौत अब हत्या और आत्महत्या में उलझ चुकी है । और अमेरिकी जांच अधिकारी कुछ भी बताने को तैयार नहीं है । अब सवाल यह उठता है कि आख़िर इन सबके पीछे वजह क्या होती है कि हर साल हजारों भारतीय लड़कियां एनआरआई लड़कों से शादी कर घर बसाने के चक्कर में मौत के घाट उतारीं जा रहीं हैं । इसके पीछे एक सबसे बड़ा कारण रहा है कि अमेरिका या बाकी विदेशों में बसे लोग अपने आप को एकायक एलीट वर्ग में महसूस करता है । सोच बदल जाती है वह भौतिक संसाधनों को ही सबकुछ मान बैठते हैं । लड़कियां हर दिन चेंज होते शरीर के कपड़ों की तरह बदलने लगती हैं और दूसरों की ज़िंदगी हाथ के खिलौने की तरह लगने लगती है, जब चाहा तोड़ दिया और जब मन किया तो ख़रीद लिया । हर साल ऐसी हजारों घटनाएं हो रही हैं लेकिन फिर भी विदेशों में शादी करने का ट्रेड़ कम नहीं हो रहा । परिवार की मर्जी हो या न हो हर लड़की की किसी एनआरआई से शादी पहली प्राथमिकता होती है । विदेश में बसे भारतीय यहां कि लड़कियों से शादी तो करना चाहते हैं लेकिन शादी के बाद जल्द ही उनकी सोच बदल जाती है । पैसा ही उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाता है । जल्द ही वे दूसरी लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते है । और बीवियां उन्हें तरक़की में बांधक दिखाई देने लगती है । फिर शुरु होता है कम दहेज़ की आड़ में उत्पीड़न हक़ीक़त में यहां दहेज अहम वजह नहीं होती लेकिन प्रताड़ित किये जाने और घर में उपेक्षा को महसूस जरूर कराती है । और अंत में यही प्रताड़ना इतनी कष्टदायक हो जाती है कि या तो लड़कियां खुदकुशी करने को मजबूर होतीं हैं या उनकों मौत के घाट उतार दिया जाता है । और फिर शुरू होती है हत्या को आत्महत्या और हादसा का रुप देने की साजिश । नीमा के मामले में भी सब कुछ ऐसा ही है । सवाल सबसे बड़ा है कि एक पढ़ी लिखी लड़की 2 साल की बच्ची को इस दुनिया में छोड़ कर आख़िर खुदकुशी क्यों करेगी । नीमा की हत्या की गयी या स्यूसाइड के लिये मज़बूर किया गया इससे तो शायद कभी भी पर्दा न उठे क्यों कि जो अधिकारी नीमा के पिता को कुछ भी बताने को तैयार नहीं हैं वह क्या जांच करेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल देश की नौजवान पीढ़ी से है जो तरककी के फेर में ज़िंदगी को पीछे छोड़ रही है । लड़कियों को एनआरआई लड़कों की लालच को छोड़ना होगा । जिंदगी का एक मकसद बनाना होगा और इन्हें सबक भी सिखाना होगा नहीं तो एक नीमा नहीं न जाने कितनी नीमा बे मौत मारी जाती रहेंगी।

काश नीमा को हम बचा पाते !




बीते एक साल में एनआरआई लड़कों से शादी करने की दिवानगी लड़कियों में जिस तरह से जोर  पकड़ रही है उसने सुख की चाह में उनके जीवन को ही निगलना शुरु कर दिया है । दिल्ली की नीमा के साथ भी ऐसा ही हुआ, आज वह दुनिया में नहीं है काश हम नीमा की जिंदगी को बचा पाते । सवाल यह भी है कि क्या नीमा की मौत से विदेशों की ओर रुख़ कर रहीं लड़कियां कोई सीख लेंगी  बता रहें  हैं अखिलेश कृष्ण मोहन

एनआरआई लड़कों से शादी करने और विदेशों में बसने की बीमारी काफी तेज़ी से भारतीय परिवारों को जकड़ने लगी है । पढ़ा लिखा और उच्चवर्गीय परिवार अपने बेटे और बेटियों को देश में नहीं विदेश में भेज कर ही खुश हो रहा है । विदेशों में बसना धनाड्य होने की एक निशानी भी है । लेकिन यह रोग सुख-शान्ति और जीवन को किस तरह घातक बन रहा है यह जानने कि लिये इंटरनेशनल सेंटर फॉर जिनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नॉलजी(आईसीजेईबी) की साइंटिस्ट नीमा की मौत और लाखों नीमा जैसी लड़कियों की हक़ीक़त को समझना होगा । नीमा कोई कम पढ़ी लिखी नहीं थी और न ही उसके माता-पिता अनपढ़ थे। कालकाजी एक्सटेंशन में रहने वाले डीयू के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वीरेंद्र अग्रवाल की बेटी थी । डॉक्टर अग्रवाल ने भी वही किया जो आज हो रहा है । बेटी ने भी एक सांइटिस्ट पुष्पेंद्र को जीवन साथी चुना, जो विदेश में सेटल हो चुका था, और शायद वह किसी भारतीय भोली-भाली लड़की के शिकार की फिराक में था । बताया जाता है इसकी शुरुआत यहां से हुयी, नीमा की सहेली ने  उस वक्त पुष्पेंद्र के एक दोस्त  से शादी की थी और दोनों अमेरिका में खुशहाल रह रहे थे। उन्होंने ही नीमा के सामने पुष्पेंद्र से शादी का प्रस्ताव रखा था । इंटरनेट और फोन पर नीमा और पुष्पेंद्र की बातचीत शुरु हुई और दोनों ने शादी का फ़ैसला किया । दोनों के परिजन भी शादी को राजी हो गये और शादी हो गयी । नीमा के पिता डॉ. वीरेंद्र अग्रवाल का कहना है कि शादी के पहले पुष्पेंद्र के परिजनों ने कोई भी डिमांड होने से इंकार किया था । लेकिन नीमा के ससुराल जाने जाने के बाद से ही दहेज कम लाने जैसे आरोप लगने लगे और नीम को परेशान किया जाने लगा । नीमा के पिता ने नीमा के ही हाथ दो लाख रुपये भी पुष्पेंद्र को भिजवाए । इसी बीच नीमा को अमेरिका का वीजा मिल गया और वह अमेरिका चली गयी । सवाल यहां दो लाख का नहीं था सवाल उस सोच का था जो पुष्पेंद्र के एक साइंटिष्ट होने के बाद भी नहीं बदली थी । बताया जाता है कि नीमा की सास हर वक्त दहेज की बात पर ख़रीखोटी सुनाया करती थी । इसी बीच साल 2008 में नीमा ने एक बेटी को जन्म दिया और इसी साल नीमा को न्यू जर्सी में जॉब मिल गयी । यानी नीमा भी अब पुष्पेंद्र के उपर निर्भर नहीं रही वह खुद कमाने और अपना खर्च उठाने वाली आत्मनिर्भर महिला बन चुकी थी । नीमा के आत्मनिर्भर होने के बाद भी पुष्पेंद्र-नीमा के बीच तारतम्य ठीक नहीं था और नीमा के पिता की माने तो आगामी 8 फ़रवरी को नीमा बेटी के साथ वापस इंडिया आना वाली थी । लेकिन अचानक 9 जनवरी को ही पुष्पेंद्र ने नीमा के खुदकुशी करने की ख़बर दी । जब नीमा के पिता अमेरिका पहुंचे तो नीमा के स्यूसाइड नोट को देख कर चौक गये स्यूसाइड नोट पर न तो नीमा के हस्ताक्षर थे और न ही उसकी लिखावट नीमा की हैंडराइटिंग से मिल रही थी । इतना ही नहीं पुष्पेंद्र नीमा का दाह संस्कार भी वहीं करवाना चाहता था । लेकिन नीमा के पिता के राजी न होने पर लाश दिल्ली लाई गयी । अमेरिकी अधिकारियों ने भी नीमा के पिता वीरेंद्र अग्रवाल को यह कहते हुये कुछ भी बताने से इनकार कर दिया कि वह पुष्पेंद्र से बात कर चुके हैं । नीमा के पति का कहना है कि उसने खुदकुशी की है लेकिन नीमा के माता-पिता का कहना है कि उसकी हत्या की गयी है या तो उसे खुदकुशी के लिये उकसाया गया है । कुल मिलाकर नीमा की मौत अब हत्या और आत्महत्या में उलझ चुकी है । और अमेरिकी जांच अधिकारी कुछ भी बताने को तैयार नहीं है । अब सवाल यह उठता है कि आख़िर इन सबके पीछे वजह क्या होती है कि हर साल हजारों भारतीय लड़कियां एनआरआई लड़कों से शादी कर घर बसाने के चक्कर में मौत के घाट उतारीं जा रहीं हैं । इसके पीछे एक सबसे बड़ा कारण रहा है कि अमेरिका या बाकी विदेशों में बसे लोग अपने आप को एकायक एलीट वर्ग में महसूस करता है । सोच बदल जाती है वह भौतिक संसाधनों को ही सबकुछ मान बैठते हैं । लड़कियां हर दिन चेंज होते शरीर के कपड़ों की तरह बदलने लगती हैं और दूसरों की ज़िंदगी हाथ के खिलौने की तरह लगने लगती है, जब चाहा तोड़ दिया और जब मन किया तो ख़रीद लिया । हर साल ऐसी हजारों घटनाएं हो रही हैं लेकिन फिर भी विदेशों में शादी करने का ट्रेड़ कम नहीं हो रहा । परिवार की मर्जी हो या न हो हर लड़की की किसी एनआरआई से शादी पहली प्राथमिकता होती है । विदेश में बसे भारतीय यहां कि लड़कियों से शादी तो करना चाहते हैं लेकिन शादी के बाद जल्द ही उनकी सोच बदल जाती है । पैसा ही उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाता है । जल्द ही वे दूसरी लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते है । और बीवियां उन्हें तरक़की में बांधक दिखाई देने लगती है । फिर शुरु होता है कम दहेज़ की आड़ में उत्पीड़न हक़ीक़त में यहां दहेज अहम वजह नहीं होती लेकिन प्रताड़ित किये जाने और घर में उपेक्षा को महसूस जरूर कराती है । और अंत में यही प्रताड़ना इतनी कष्टदायक हो जाती है कि या तो लड़कियां खुदकुशी करने को मजबूर होतीं हैं या उनकों मौत के घाट उतार दिया जाता है । और फिर शुरू होती है हत्या को आत्महत्या और हादसा का रुप देने की साजिश । नीमा के मामले में भी सब कुछ ऐसा ही है । सवाल सबसे बड़ा है कि एक पढ़ी लिखी लड़की 2 साल की बच्ची को इस दुनिया में छोड़ कर आख़िर खुदकुशी क्यों करेगी । नीमा की हत्या की गयी या स्यूसाइड के लिये मज़बूर किया गया इससे तो शायद कभी भी पर्दा न उठे क्यों कि जो अधिकारी नीमा के पिता को कुछ भी बताने को तैयार नहीं हैं वह क्या जांच करेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल देश की नौजवान पीढ़ी से है जो तरककी के फेर में ज़िंदगी को पीछे छोड़ रही है । लड़कियों को एनआरआई लड़कों की लालच को छोड़ना होगा । जिंदगी का एक मकसद बनाना होगा और इन्हें सबक भी सिखाना होगा नहीं तो एक नीमा नहीं न जाने कितनी नीमा बे मौत मारी जाती रहेंगी।

काश नीमा को हम बचा पाते !



बीते एक साल में एनआरआई लड़कों से शादी करने की दिवानगी लड़कियों में जिस तरह से जोर  पकड़ रही है उसने सुख की चाह में उनके जीवन को ही निगलना शुरु कर दिया है । दिल्ली की नीमा के साथ भी ऐसा ही हुआ, आज वह दुनिया में नहीं है काश हम नीमा की जिंदगी को बचा पाते । सवाल यह भी है कि क्या नीमा की मौत से विदेशों की ओर रुख़ कर रहीं लड़कियां कोई सीख लेंगी  बता रहें  हैं अखिलेश कृष्ण मोहन

एनआरआई लड़कों से शादी करने और विदेशों में बसने की बीमारी काफी तेज़ी से भारतीय परिवारों को जकड़ने लगी है । पढ़ा लिखा और उच्चवर्गीय परिवार अपने बेटे और बेटियों को देश में नहीं विदेश में भेज कर ही खुश हो रहा है । विदेशों में बसना धनाड्य होने की एक निशानी भी है । लेकिन यह रोग सुख-शान्ति और जीवन को किस तरह घातक बन रहा है यह जानने कि लिये इंटरनेशनल सेंटर फॉर जिनेटिक इंजीनियरिंग एंड बायोटेक्नॉलजी(आईसीजेईबी) की साइंटिस्ट नीमा की मौत और लाखों नीमा जैसी लड़कियों की हक़ीक़त को समझना होगा । नीमा कोई कम पढ़ी लिखी नहीं थी और न ही उसके माता-पिता अनपढ़ थे। कालकाजी एक्सटेंशन में रहने वाले डीयू के रिटायर्ड प्रोफेसर डॉ. वीरेंद्र अग्रवाल की बेटी थी । डॉक्टर अग्रवाल ने भी वही किया जो आज हो रहा है । बेटी ने भी एक सांइटिस्ट पुष्पेंद्र को जीवन साथी चुना, जो विदेश में सेटल हो चुका था, और शायद वह किसी भारतीय भोली-भाली लड़की के शिकार की फिराक में था । बताया जाता है इसकी शुरुआत यहां से हुयी, नीमा की सहेली ने  उस वक्त पुष्पेंद्र के एक दोस्त  से शादी की थी और दोनों अमेरिका में खुशहाल रह रहे थे। उन्होंने ही नीमा के सामने पुष्पेंद्र से शादी का प्रस्ताव रखा था । इंटरनेट और फोन पर नीमा और पुष्पेंद्र की बातचीत शुरु हुई और दोनों ने शादी का फ़ैसला किया । दोनों के परिजन भी शादी को राजी हो गये और शादी हो गयी । नीमा के पिता डॉ. वीरेंद्र अग्रवाल का कहना है कि शादी के पहले पुष्पेंद्र के परिजनों ने कोई भी डिमांड होने से इंकार किया था । लेकिन नीमा के ससुराल जाने जाने के बाद से ही दहेज कम लाने जैसे आरोप लगने लगे और नीम को परेशान किया जाने लगा । नीमा के पिता ने नीमा के ही हाथ दो लाख रुपये भी पुष्पेंद्र को भिजवाए । इसी बीच नीमा को अमेरिका का वीजा मिल गया और वह अमेरिका चली गयी । सवाल यहां दो लाख का नहीं था सवाल उस सोच का था जो पुष्पेंद्र के एक साइंटिष्ट होने के बाद भी नहीं बदली थी । बताया जाता है कि नीमा की सास हर वक्त दहेज की बात पर ख़रीखोटी सुनाया करती थी । इसी बीच साल 2008 में नीमा ने एक बेटी को जन्म दिया और इसी साल नीमा को न्यू जर्सी में जॉब मिल गयी । यानी नीमा भी अब पुष्पेंद्र के उपर निर्भर नहीं रही वह खुद कमाने और अपना खर्च उठाने वाली आत्मनिर्भर महिला बन चुकी थी । नीमा के आत्मनिर्भर होने के बाद भी पुष्पेंद्र-नीमा के बीच तारतम्य ठीक नहीं था और नीमा के पिता की माने तो आगामी 8 फ़रवरी को नीमा बेटी के साथ वापस इंडिया आना वाली थी । लेकिन अचानक 9 जनवरी को ही पुष्पेंद्र ने नीमा के खुदकुशी करने की ख़बर दी । जब नीमा के पिता अमेरिका पहुंचे तो नीमा के स्यूसाइड नोट को देख कर चौक गये स्यूसाइड नोट पर न तो नीमा के हस्ताक्षर थे और न ही उसकी लिखावट नीमा की हैंडराइटिंग से मिल रही थी । इतना ही नहीं पुष्पेंद्र नीमा का दाह संस्कार भी वहीं करवाना चाहता था । लेकिन नीमा के पिता के राजी न होने पर लाश दिल्ली लाई गयी । अमेरिकी अधिकारियों ने भी नीमा के पिता वीरेंद्र अग्रवाल को यह कहते हुये कुछ भी बताने से इनकार कर दिया कि वह पुष्पेंद्र से बात कर चुके हैं । नीमा के पति का कहना है कि उसने खुदकुशी की है लेकिन नीमा के माता-पिता का कहना है कि उसकी हत्या की गयी है या तो उसे खुदकुशी के लिये उकसाया गया है । कुल मिलाकर नीमा की मौत अब हत्या और आत्महत्या में उलझ चुकी है । और अमेरिकी जांच अधिकारी कुछ भी बताने को तैयार नहीं है । अब सवाल यह उठता है कि आख़िर इन सबके पीछे वजह क्या होती है कि हर साल हजारों भारतीय लड़कियां एनआरआई लड़कों से शादी कर घर बसाने के चक्कर में मौत के घाट उतारीं जा रहीं हैं । इसके पीछे एक सबसे बड़ा कारण रहा है कि अमेरिका या बाकी विदेशों में बसे लोग अपने आप को एकायक एलीट वर्ग में महसूस करता है । सोच बदल जाती है वह भौतिक संसाधनों को ही सबकुछ मान बैठते हैं । लड़कियां हर दिन चेंज होते शरीर के कपड़ों की तरह बदलने लगती हैं और दूसरों की ज़िंदगी हाथ के खिलौने की तरह लगने लगती है, जब चाहा तोड़ दिया और जब मन किया तो ख़रीद लिया । हर साल ऐसी हजारों घटनाएं हो रही हैं लेकिन फिर भी विदेशों में शादी करने का ट्रेड़ कम नहीं हो रहा । परिवार की मर्जी हो या न हो हर लड़की की किसी एनआरआई से शादी पहली प्राथमिकता होती है । विदेश में बसे भारतीय यहां कि लड़कियों से शादी तो करना चाहते हैं लेकिन शादी के बाद जल्द ही उनकी सोच बदल जाती है । पैसा ही उनकी प्राथमिकताओं में शामिल हो जाता है । जल्द ही वे दूसरी लड़कियों के चक्कर में पड़ जाते है । और बीवियां उन्हें तरक़की में बांधक दिखाई देने लगती है । फिर शुरु होता है कम दहेज़ की आड़ में उत्पीड़न हक़ीक़त में यहां दहेज अहम वजह नहीं होती लेकिन प्रताड़ित किये जाने और घर में उपेक्षा को महसूस जरूर कराती है । और अंत में यही प्रताड़ना इतनी कष्टदायक हो जाती है कि या तो लड़कियां खुदकुशी करने को मजबूर होतीं हैं या उनकों मौत के घाट उतार दिया जाता है । और फिर शुरू होती है हत्या को आत्महत्या और हादसा का रुप देने की साजिश । नीमा के मामले में भी सब कुछ ऐसा ही है । सवाल सबसे बड़ा है कि एक पढ़ी लिखी लड़की 2 साल की बच्ची को इस दुनिया में छोड़ कर आख़िर खुदकुशी क्यों करेगी । नीमा की हत्या की गयी या स्यूसाइड के लिये मज़बूर किया गया इससे तो शायद कभी भी पर्दा न उठे क्यों कि जो अधिकारी नीमा के पिता को कुछ भी बताने को तैयार नहीं हैं वह क्या जांच करेंगे। लेकिन सबसे बड़ा सवाल देश की नौजवान पीढ़ी से है जो तरककी के फेर में ज़िंदगी को पीछे छोड़ रही है । लड़कियों को एनआरआई लड़कों की लालच को छोड़ना होगा । जिंदगी का एक मकसद बनाना होगा और इन्हें सबक भी सिखाना होगा नहीं तो एक नीमा नहीं न जाने कितनी नीमा बे मौत मारी जाती रहेंगी।