Thursday, August 5, 2010

अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार की घातक मांग।

अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार की घातक मांग।

पूर्व मुख्य न्यायाधीश और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष केजी बाला कृष्णन के फांसी की सज़ा पर व्यक्तिगत टिपप्ड़ी से अन्तर्राष्ट्रीय मानवाधिकार महकमें में खलबली मचीं है । के.जी बालाकृष्णन ने डेथ पेनाल्टी को वर्तमान परिद्रश्य के मुताबिक सही ठहराया था और यह भी कहा था कि अपराध रोकने में फांसी की सजा का योगदान है । ह्युमन राइट्स लॉ नेटवर्क (एचआरएलएन) के संस्थापक ने पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुप्रीम कोर्ट के इस वक्तव्य पर खेद प्रकट करते हुए कहा है कि जब दुनियां भर में मानवाधिकार की मुहिम का एक मुख्य मुद्दा डेथ पेनाल्टी को ख़त्म करना है। ऐसे में भारतीय मानवाधिकार आयोग के मुखिया का यह कथन हैरान कर देने वाला है । मानवाधिकार आयोग और मानवाधिकार की खुले दिल से पैरवी करने वाले सदष्यों को यह सोचना होगा कि अभी तक के इतिहास में कितने लोगों को फांसी की सज़ा से समाज को ख़मियाजा उठाना पड़ा है । मानवाधिकार मानव के अधिकारों की रक्षा करता है लेकिन जहां समाज के लिये ख़तरे की आशंका हो यानी कई मानव के अधिकारों पर चोट पहुंचाने की साजिश हो वहां पर अपराधी को फांसी क्यों नहीं दी जा सकती । मानवाधिकार संगठनों को यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत में फांसी दिये जाने की दर बहुत कम है इसका भारत ख़ामियाजा भी भुगतना पड़ा है । अगर आतंकवादियों को फांसी दे दी गयी होती तो 1999 में कांधार विमान अपहरण और 20 साल पहले मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद के अपहरण की दास्तान न रची गयी होती और जिसके बदले आतंकवादियो की रिहाई न होती । कांधार विमान अपहरण कांड में रुपेन कत्याल समेत आधा दर्जन निर्दोष लोगों की हत्याये आतंकवादियों ने की थी, इसके बाद भारतीय ज़ेलों में बंद आतंकी सरगनाओं को छोड़ने पर भारत को मजबूर होना पड़ा । क्या मानवाधिकर आयोग इन सब घटनाओं पर गौर करेगा ।जिसका ख़ामियाजा भारत आज भी उठा रहा है । फांसी का अपना खौफ़ आज भी है । जिसे नज़र अंदाज़ नहीं किया जा सकता । मानवाधिकार की दलील है कि डेथ पेनाल्टी को आजीवन कारावास में बदला जाये लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि आजीवन कारावास की सजा काटने के बाद अपराधी में सुधार आयेगा ही और अपराधी अपराध की दुनियां में तेजी से पदार्पण नहीं करेगा, समाज में वापसी के बाद वह अपराध नहीं करेगा और समाज के लिये ख़तरा नहीं होगा । कई ऐसे अपराधी है जो जमानत पर बाहर आते ही आतंक का नया रुप ले लेते है और पुलिस की पकड़ से बाहर हो जाते है । क्या इसका कोई कारगर उपाय मानवाधिकार आयोग के पास है । हमारी न्यायिक प्रक्रिया काफी धीमी है कई मामलों में आरोप सिद्ध होने और दोष साबित होने में इतना वक्त लग जाता है कि दोषी अपनी सजा का एक बड़ा हिस्सा जेल में पहले ही काट चुका होता है । ऐसे में अगर दोषी को हर मामले में आजीवन कारावास की सज़ा देने का नियम बन जायेगा तो कई दोषी सजा मिलने के तुरंत बाद ही जेल की सलाखों के बाहर होगें और समाज में अपराध की दुनिया बनायेंगे। क्या कभी मानवाधिकार की दलील देने वालों ने इसकी फिक्र की । तब यह भी होगा कि अपराधी अपराध करने से पहले ही अपनी आजीवन कारावास के बाद की ज़िंदगी का पूरा खाका तैयार कर लेगा और धड़ल्ले से अपराध करेगा, इससे अपराध की बाढ़ आ जायेगी और देश के सामने संकट पैदा होगा । अभी हमारे देश में कई ऐसे अपराधी ज़ेलों में बंद हैं जिनकी फांसी होनी है लेकिन फाईल प्रदेश सरकार से लेकर महामहिम राष्ट्रपति के पास ही अटकी है । आमिर अजमल कसाब और अफ़जल गुरु देश के लिये कितने ख़तरनाक है इसकी परवाह मानवाधिकार अयोग को शायद नहीं है । अगर होती तो ऐसी मांग न उठती ।
मानवाधिकार के पैरोकारों को देश समाज और आम आदमी को सुरक्षित रखने के लिये डेथ पेनाल्टी को खत्म करने की मांग नहीं बल्कि प्रक्रिया को तेज करने की मांग करनी चाहिये नहीं तो एक और कांधार और मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी रुबिया सईद की कहानी को दोहराते देर नहीं लगेगा । मानवाधिकार उनकी रक्षा के लिये होते है जो मानवता के अर्थ को समझते हो न कि उनके लिये जो मानवता को नष्ट करना चाहते है । मानवाधिकार आयोग और न्यायपालिका को मिलकर समाज को अपराध मुक्त बनाना है न कि अपराध को जिंदा रख कर कई अपराध पैदा करने की। राष्ट्रीय मानवाधिकार के अध्यक्ष के.जी बालाकृष्णन के कथन पर बखेड़ा खड़ा करने की जरुरत नहीं अक्षरसः पालन करने की जरुरत है । हमे नहीं भूलना चाहिये कि हमारा क़ानून अभी भी दुर्लभत्म मामलों में ही फांसी की सज़ा देता है । ऐसे में फांसी की सज़ा ख़त्म होने से हर हाल में अपराध बढ़ेगा ही ।

अखिलेश पाठक
पत्रकार
अमर भारती (दैनिक हिंदी समाचार पत्र में प्रकाशित)
दिल्ली
Mail. ID. akhileshnews@gmail.com

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